
ज्योतिष भू-केंद्रीय पद्धति पर आधारित है। यहां हम पृथ्वी को स्थिर मानकर अन्य ग्रहों को पृथ्वी के सापेक्ष भ्रमण करते हुए महसूस कर सकते हैं। यहां सूर्य से इस स्थिति को समझा जा सकता है। सूर्य से अधिकतम दूरी पर यदि कोई ग्रह गोचर कर रहा हो तो वह बक्री हो जाता है। सूर्य और चन्द्रमा हमेशा मार्गी ही रहते है।
सूर्य एवं चन्द्रमा की गति पर ही हमारे पंचाग में तिथियों निर्धारित की जाती हैं। राहु-केतु जिसे ज्योतिष में छाया ग्रह कहा गया है हमेशा वक्र गति से ही भ्रमण करते हैं। सूर्य के चारों तरफ सभी ग्रह चक्कर लगाते हैं और सूर्य ही सभी
ग्रहों के वक्री एवं अस्त होने का कारण होता है। सूर्य को स्थिर बताया गया है सूर्य गतिमान नहीं है जिस कारण यहां वक्री गति नहीं हो सकती।चंद्रमा तिथि निर्धारण में सहायक होता हैं तथा राशि चक्र पर हमेशा स्थित नहीं होता इस कारण सूर्य चंद्रमा वक्री नहीं हो सकते।
सूर्य पृथ्वी के बीच में बुध तथा शुक्र होने से आंतरिक ग्रह कहलाते हैं तथा मंगल, गुरु और शनि वाह्य कक्षा में होने के कारण वाह्य ग्रह कहलाते हैं। आंतरिक ग्रह यानी बुध और शुक्र कभी वाह्य युति नहीं करते यानी वह एक दूसरे के सामने कभी नहीं हो सकते और जो ग्रह वाह्य कक्षा में होते हैं वह सूर्य से 360 अंश पर कभी भी जा सकते हैं।
सूर्य से मंगल, गुरु और शनि 120 अंश तक आगे अथवा पीछे होने पर कभी वक्री नहीं होते हैं लेकिन यदि सूर्य से 120 से 240 अंश तक स्थित ह ो तो मंगल, गुरु एवं शनि वक्री हो जाते हैं। सूर्य पर सभी ग्रहों को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है इसलिए सूर्य को ग्रहों का राजा कहा गया है।

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